कुछ उज़्र पस-ए-वा'दा-ख़िलाफ़ी नहीं रखते 
हो कैसे मसीहा दम-ए-शाफ़ी नहीं रखते 
ऐसे तो न थे ज़ख़्म कि जो भर ही न पाते 
अहबाब मगर ज़र्फ़-ए-तलाफ़ी नहीं रखते 
इस चैन से जीने में कोई भेद नहीं है 
बस ये कि तमन्नाएँ इज़ाफ़ी नहीं रखते 
इस दौर में इंसाफ़ पनप ही नहीं सकता 
इख़्लास-ए-क़लम जिस में सहाफ़ी नहीं रखते 
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे 
हम जैसा मगर ज़ौक़-ए-क़वाफ़ी नहीं रखते 
ये मो'जिज़ा मोहताज है पिंदार-ए-वफ़ा का 
सब तेशे दम-ए-कोह-शिगाफ़ी नहीं रखते 
हर बात में कम-माया नज़र आते हैं 'अंजुम' 
राहत तो कुजा दर्द भी काफ़ी नहीं रखते
        ग़ज़ल
कुछ उज़्र पस-ए-वा'दा-ख़िलाफ़ी नहीं रखते
अंजुम ख़लीक़

