कुछ समझ आया न आया मैं ने सोचा है उसे
ज़ेहन पर उस को उतारा दिल पे लिक्खा है उसे
इन दिनों इस शहर में इक फ़स्ल-ए-ख़ूँ का रक़्स है
हम बहुत बे-बस हुए हैं, मैं ने लिक्खा है उसे
धूप ने हँस कर कहा देखा तुझे पिघला दिया
बर्फ़ क्या कहती नफ़ासत ने डुबोया है उसे
बाग़ में होना ही शायद सेब की पहचान थी
अब कि वो बाज़ार में है अब तो बिकना है उसे
कल भरे बादल में क्या रंगों का दरवाज़ा खुला
मुझ को कल तक था ये दावा मैं ने समझा है उसे
एक शय जिस को उमूमन सिर्फ़ दिल कहते हैं लोग
मर गया होता मगर मैं ने बचाया है उसे
कर्ब दिल का मेरे लब पर आएगा 'मंज़ूर' क्या
मैं ने ख़ून-ए-दिल से काग़ज़ पर उतारा है उसे
ग़ज़ल
कुछ समझ आया न आया मैं ने सोचा है उसे
हकीम मंज़ूर