कुछ न ईधर है ने उधर तू है
जिस तरफ़ कीजिए नज़र तू है
इख़्तिलाफ़-ए-सुवर हैं ज़ाहिर में
वर्ना मअनी-ए-यक-दिगर तू है
है जो कुछ तू सो तू ही जाने है
कोई क्या जाने किस क़दर तू है
क्या मह-ओ-महर क्या गुल-ओ-लाला
जब मैं देखा तो जल्वा-गर तू है
किस से तश्बीह दीजिए तुझ को
सारे ख़ूबाँ से ख़ूब-तर तू है
वो तो 'बेदार' है अयाँ लेकिन
उस के जल्वा से बे-ख़बर तू है
ग़ज़ल
कुछ न ईधर है ने उधर तू है
मीर मोहम्मदी बेदार