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कुछ मुझे अब ज़िंदगी अपनी नज़र आती नहीं | शाही शायरी
kuchh mujhe ab zindagi apni nazar aati nahin

ग़ज़ल

कुछ मुझे अब ज़िंदगी अपनी नज़र आती नहीं

मोहम्मद अमान निसार

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कुछ मुझे अब ज़िंदगी अपनी नज़र आती नहीं
दोस्तो मुद्दत हुई उस की ख़बर आती नहीं

रू-ब-रू होते ही उस के अक़्ल हो जाती है गुम
कुछ का कुछ बिकने लगूँ हूँ बात कर आती नहीं

उस बुत-ए-गुमराह को हर-चंद समझाता हूँ मैं
क्या करूँ उस की तबीअत राह पर आती नहीं

दिल फँसा है उस के बस में देखिए क्या हो 'निसार'
नागनी जिस ज़ुल्फ़ के ओहदे से बर आती नहीं