कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई
दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई
मग़रूर बहुत थे हम आँसू की सरायत पर
सो सुब्ह के होने को तासीर नज़र आई
गुल-बार करे हैगा असबाब-ए-सफ़र शायद
ग़ुंचे की तरह बुलबुल दिल-गीर नज़र आई
उस की तो दिल-आज़ारी बे-हेच ही थी यारो
कुछ तुम को हमारी भी तक़्सीर नज़र आई
ग़ज़ल
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
मीर तक़ी मीर