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कुछ इस अदा से वो मेरे दिल-ओ-नज़र में रहा | शाही शायरी
kuchh is ada se wo mere dil-o-nazar mein raha

ग़ज़ल

कुछ इस अदा से वो मेरे दिल-ओ-नज़र में रहा

अतहर नादिर

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कुछ इस अदा से वो मेरे दिल-ओ-नज़र में रहा
ब-क़ैद-ए-होश भी मैं आलम-ए-दिगर में रहा

ख़ुद अपनी ज़ात पे मुझ को भी इख़्तियार न था
तमाम-उम्र मैं इक हल्क़ा-ए-असर में रहा

वो इश्क़ जिस की ज़माने को भी ख़बर न रही
तिरे बिछड़ने से रुस्वा नगर नगर में रहा

रह-ए-हयात में तेरी रिफाक़तें न सही
तिरा ख़याल तो हर-दम मुझे सफ़र में रहा

ग़म-ए-ज़माना ने किस को मफ़र है ऐ 'नादिर'
सुकून-ए-क़ल्ब कहाँ अब किसी हुनर में रहा