कुछ दूर साथ गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर गई
फिर उस के बा'द ज़िंदगी जाने किधर गई
अपनों की बेवफ़ाई बड़ा काम कर गई
इस आग में हयात तपी और निखर गई
बेदारी-ए-बहार-ए-नज़र ही की देर थी
फिर जो भी चीज़ सामने आई सँवर गई
अब कोसता हूँ पुख़्तगी-ए-तजरबात को
जो मुझ को हर अज़ीज़ से बेगाना कर गई
अल्लाह रे जुनून-ए-तजस्सुस के मरहले
मेरी निगाह तुझ पे भी हो कर गुज़र गई
उस पर नज़र उठा के मैं 'नाज़िश' जो रुक गया
महसूस हो रहा है कि दुनिया ठहर गई
ग़ज़ल
कुछ दूर साथ गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर गई
नाज़िश प्रतापगढ़ी