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कुछ भी कहो सब अपनी अनाओं पे अड़े हैं | शाही शायरी
kuchh bhi kaho sab apni anaon pe aDe hain

ग़ज़ल

कुछ भी कहो सब अपनी अनाओं पे अड़े हैं

असग़र आबिद

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कुछ भी कहो सब अपनी अनाओं पे अड़े हैं
सब लोग यहाँ सूरत-ए-असनाम खड़े हैं

जो पार उतरता गया होता गया कम-तर
हम दूरी-ए-मंज़िल के तुफ़ैल आज बड़े हैं

हम को न कहो क़ाने-ए-हालात कि हम लोग
ज़िंदानी-ए-दहलीज़ के मंसब पे खड़े हैं

ऐ वस्ल-नसीबो! हमें मुड़ कर भी न देखा
हम क़ुफ़्ल के मानिंद मसाइब पे पड़े हैं

तारीख़-ए-ज़मीं बख़्त-कुशा होने लगी तो
खुलता गया हम वक़्त से बे-कार लड़े हैं

उजलत के अलाव में किए फ़ैसले 'आबिद'
अब सोच की बर्फ़ानी खड़ाऊँ पे खड़े हैं