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कुछ और नज़र आते ख़ुद से जो डरे होते | शाही शायरी
kuchh aur nazar aate KHud se jo Dare hote

ग़ज़ल

कुछ और नज़र आते ख़ुद से जो डरे होते

मनमोहन तल्ख़

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कुछ और नज़र आते ख़ुद से जो डरे होते
साए में कहीं होते कुछ ज़ख़्म भरे होते

दुनिया का जो बस चलता रख देती कुचल कर ही
फिर ये भी हक़ीक़त है हम कितना परे होते

लगतीं न किसी को भी बातें ये बुरी अपनी
दो-चार जो हम ऐसे कुछ और खरे होते

अंदर से सभी शायद आवाज़ के घायल हैं
आवाज़ न देते तो क्यूँ ज़ख़्म हरे होते

हो कोई भी हम सब का मुँह बंद न कर देते
इल्ज़ाम अगर सर पे ख़ुद ही न धरे होते

कुछ देख के जी अपना होता जो ज़रा भी ख़ुश
फिर हाथ इन आँखों पे ऐसे न धरे होते

कुछ जानने की धुन है क्या जानना है लेकिन
मालूम ये होता तो ख़ुद से न परे होते

ये 'तल्ख़' किया क्या है ख़ुद से भी गए तुम तो
मरना ही किसी पर था तुम ख़ुद पे मरे होते