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कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर | शाही शायरी
kuchh aur akele hue hum ghar se nikal kar

ग़ज़ल

कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर

सऊद उस्मानी

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कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
ये लहर कहाँ जाए समुंदर से निकल कर

मालूम था मिलना तिरा मुमकिन नहीं लेकिन
चाहा था तुझे मैं ने मुक़द्दर से निकल कर

आलम में कई और भी आलम थे सो मैं ने
देखा नहीं इस मरकज़ ओ महवर से निकल कर

अब देखिए किस शख़्स का हम-दोश बने वो
झोंके की तरह मेरे बराबर से निकल कर

ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
मंज़र का नज़ारा करूँ मंज़र से निकल कर

तकता रहा मैं उस की मुबारज़-ए-तलबी को
वो मुझ से लड़ा था मिरे लश्कर से निकल कर