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कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा | शाही शायरी
kore kaghaz ki tarah be-nur babon mein raha

ग़ज़ल

कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा

युसूफ़ जमाल

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कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा
तीरगी का हाशिया बन कर किताबों में रहा

मैं अज़िय्यत-नाक लम्हों के इताबों में रहा
दर्द का क़ैदी बना ख़ाना ख़राबों में रहा

जिस क़दर दी जिस्म को मक़रूज़ साँसों की ज़कात
क्या बताऊँ जिस्म उतना ही अज़ाबों में रहा

बे-सिफ़त सहरा हूँ क्यूँ सहरा-नवर्दों ने कहा
हर क़दम पर जब कि मैं अंधे सराबों में रहा

वक़्त की महरूमियों ने छीन ली मेरी ज़बान
वर्ना इक मुद्दत तलक मैं ला-जवाबों में रहा

ढूँडते हो क्यूँ जली तहरीर के अस्बाक़ में
मैं तो कोहरे की तरह धुँदले निसाबों में रहा