कोई ये लाख कहे मेरे बनाने से मिला
हर नया रंग ज़माने को पुराने से मिला
फ़िक्र हर बार ख़मोशी से मिली है मुझ को
और ज़माना ये मुझे शोर मचाने से मिला
उस की तक़दीर अंधेरों ने लिखी थी शायद
वो उजाला जो चराग़ों को बुझाने से मिला
पूछते क्या हो मिला कैसे ये जंगल को तिलिस्म
छाँव में धूप की रंगत को मिलाने से मिला
और लोगों से मुलाक़ात कहाँ मुमकिन थी
वो तो ख़ुद से भी मिला है तो बहाने से मिला
मेरी तश्कील तो कुछ और हुई थी 'दानिश'
ये नया नक़्श मुझे ख़ुद को मिटाने से मिला
ग़ज़ल
कोई ये लाख कहे मेरे बनाने से मिला
मदन मोहन दानिश