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कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं | शाही शायरी
koi us zalim ko samjhata nahin

ग़ज़ल

कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं

नादिर शाहजहाँ पुरी

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कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं
वो सितम करने से बाज़ आता नहीं

दश्त-ए-ग़म में कब मिरा नक़्श-ए-क़दम
हर क़दम पे आँख दिखलाता नहीं

दर्द-ए-फ़ुर्क़त से ज़बाँ दाँतों में है
क्या कहूँ कुछ भी कहा जाता नहीं

चश्म-ए-दिल से देख उसे तू देख ले
चश्म-ए-ज़ाहिर से नज़र आता नहीं

सब्र-ए-शौक़-ए-वस्ल-ए-जानाँ क्या करूँ
पर लगा कर भी उड़ा जाता नहीं

कब ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में हर रात को
दिल पे मेरे साँप लहराता नहीं

गुल से निस्बत किया तिरे रुख़्सार को
ये तो वो गुल है जो कुम्हलाता नहीं

दर्द-ए-फ़ुर्क़त से है अब होंटों पे दम
फिर भी ज़ालिम को तरस आता नहीं

जान ली है जल्वा-ए-रुख़सार ने
क़ब्र की ज़ुल्मत से घबराता नहीं

हुस्न की ख़ुद्दारियाँ तो देखिए
बे-ख़ुदी में भी वो हाथ आता नहीं

वो नहीं आते तो नादिर क्या गला
होश जब दो दो दोपहर आता नहीं