कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
तुझ को जीने की अदा दे के चला जाऊँगा
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊँगा
तेरी राहों में मिरे बाद न जाने क्या हो
मैं तो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा दे के चला जाऊँगा
मेरी आवाज़ को तरसेगा तिरा रंग-महल
मैं तो इक बार सदा दे के चला जाऊँगा
मेरा माहौल रुलाता है मुझे आज मगर
तुम को हँसने की फ़ज़ा दे के चला जाऊँगा
बाइस-ए-अम्न-ओ-मोहब्बत है अगर मेरा लहू
क़तरा क़तरा ब-ख़ुदा दे के चला जाऊँगा
उम्र भर बुख़्ल का एहसास रुलाएगा तुम्हें
मैं तो साइल हूँ दुआ दे के चला जाऊँगा
मेरे अज्दाद ने सौंपी थी जो मुझ को 'रज़्मी'
नस्ल-ए-नौ को वो क़बा दे के चला जाऊँगा
ग़ज़ल
कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
मुज़फ़्फ़र रज़्मी