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कोई पूछे तो न कहना कि अभी ज़िंदा हूँ | शाही शायरी
koi puchhe to na kahna ki abhi zinda hun

ग़ज़ल

कोई पूछे तो न कहना कि अभी ज़िंदा हूँ

मंज़ूर हाशमी

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कोई पूछे तो न कहना कि अभी ज़िंदा हूँ
वक़्त की कोख में इक लम्हा-ए-आइन्दा हूँ

ज़िंदगी कितनी हसीं कितनी बड़ी ने'मत है
आह मैं हूँ कि उसे पा के भी शर्मिंदा हूँ

क्या अदा होने को है सुन्नत-ए-इबराहीमी
आग ही आग है हर सम्त मगर ज़िंदा हूँ

ज़िंदगी तू जो सुनेगी तो हँसी आएगी
मैं समझता हूँ कि मैं तेरा नुमाइंदा हूँ

तेज़ रफ़्तार हवाओं के लबों से पूछो
हर्फ़-ए-आख़िर हूँ मैं इक नग़्मा-ए-पाइंदा हूँ

अजनबी जान के हर शख़्स गुज़र जाता है
और सदियों से इसी शहर का बाशिंदा हूँ

जाने किन तेज़ उजालों में नहाया था कभी
इस क़दर सख़्त अंधेरों में भी ताबिंदा हूँ