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कोई मेहरबाँ नहीं साथ में कोई हात भी नहीं हात में | शाही शायरी
koi mehrban nahin sath mein koi hat bhi nahin hat mein

ग़ज़ल

कोई मेहरबाँ नहीं साथ में कोई हात भी नहीं हात में

मोहम्मद अहमद

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कोई मेहरबाँ नहीं साथ में कोई हात भी नहीं हात में
हैं उदासियाँ मिरी मुंतज़िर सभी रास्तों में जिहात में

है ख़बर मुझे कि ये तुम नहीं कसी अजनबी को भी क्या पड़ी
सभी आश्ना भी हैं रू-ब-रू तो ये कौन है मिरी घात में

ये उदासियों का जो रंग है कोई हो न हो मिरे संग है
मिरे शेर में मिरी बात में मिरी आदतों में सिफ़ात में

करें ए'तिबार किसी पे क्या कि ये शहर शहर-ए-निफ़ाक़ है
जहाँ मुस्कुराते हैं लब कहीं वहीं तंज़ है किसी बात में

चलो ये भी माना ऐ हम-नवा कि तग़य्युरात के मा-सिवा
नहीं मुस्तक़िल कोई शय यहाँ तो ये हिज्र क्यूँ है सबात में

मिरी दस्तरस में भी कुछ नहीं, नहीं तेरे बस में भी कुछ नहीं
मैं असीर-ए-काकुल-ए-इश्क़ हूँ मुझे क्या मिलेगा नजात में