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कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में | शाही शायरी
koi mahram nahin milta jahan mein

ग़ज़ल

कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में

अल्ताफ़ हुसैन हाली

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कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
मुझे कहना है कुछ अपनी ज़बाँ में

क़फ़स में जी नहीं लगता किसी तरह
लगा दो आग कोई आशियाँ में

कोई दिन बुल-हवस भी शाद हो लें
धरा क्या है इशारात-ए-निहाँ में

कहीं अंजाम आ पहुँचा वफ़ा का
घुला जाता हूँ अब के इम्तिहाँ में

नया है लीजिए जब नाम उस का
बहुत वुसअत है मेरी दास्ताँ में

दिल-ए-पुर-दर्द से कुछ काम लूँगा
अगर फ़ुर्सत मिली मुझ को जहाँ में

बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में