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कोई लहजा कोई जुमला कोई चेहरा निकल आया | शाही शायरी
koi lahja koi jumla koi chehra nikal aaya

ग़ज़ल

कोई लहजा कोई जुमला कोई चेहरा निकल आया

शाहिद लतीफ़

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कोई लहजा कोई जुमला कोई चेहरा निकल आया
पुराने ताक़ के सामान से क्या क्या निकल आया

ब-ज़ाहिर अजनबी बस्ती से जब कुछ देर बातें कीं
यहाँ की एक इक शय से मिरा रिश्ता निकल आया

मिरे आँसू हुए थे जज़्ब जिस मिट्टी में अब उस पर
कहीं पौदा कहीं सब्ज़ा कहीं चश्मा निकल आया

ख़ुदा ने एक ही मिट्टी से गूँधा सब को इक जैसा
मगर हम में कोई अदना कोई आ'ला निकल आया

सभी से फ़ासला रखने की आदत थी सो अब भी है
पराया कौन था जो शहर में अपना निकल आया

नए माहौल ने पहचान ही मश्कूक कर डाली
जो बे-चेहरा थे कल तक उन के भी चेहरा निकल आया