कोई किस तरह तुम से सर-बर हो
सख़्त बे-रहम हो सितमगर हो
उठ गया हम से गो मुकद्दर हो
ख़ुश रहे वो जहाँ हो जीधर हो
तेवरी चढ़ रही है ये भौं पर
क्या है क्यूँ किस लिए मुकद्दर हो
क्या शिताबी ही ऐसे जाएगा
ख़ुश्क तो हो अरक़ अभी तर हो
जान खाई है नासेहो ने मिरी
सामने इन के तो टुक आ कर हो
लीजे हाज़िर है चीज़ क्या है दिल
ग़ुस्सा इस वास्ते जो मुझ पर हो
याद में उस की घर से निकला हूँ
सख़्त बे-इख़्तियार-ओ-मुज़्तर हो
उस से 'बेदार' बात तो मालूम
देखना भी कहीं मयस्सर हो
ग़ज़ल
कोई किस तरह तुम से सर-बर हो
मीर मोहम्मदी बेदार