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कोई खिड़की जो खुली रहती है | शाही शायरी
koi khiDki jo khuli rahti hai

ग़ज़ल

कोई खिड़की जो खुली रहती है

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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कोई खिड़की जो खुली रहती है
सामने शक्ल वही रहती है

मेरे होंटों पे हँसी रहती है
आग फूलों में दबी रहती है

जैसे हर चीज़ पिघल जाएगी
धूप यूँ सर पे खड़ी रहती है

अब तो ख़्वाबों के भी आईने में
वक़्त की धूल जमी रहती है

मेरी तन्हाई के दरवाज़े पर
जाने क्यूँ भीड़ लगी रहती है

कितनी क़ातिल है ये दुनिया लेकिन
कितनी मा'सूम बनी रहती है

तेज़-रौ वक़्त से आगे 'साक़िब'
मेरी शोरीदा-सरी रहती है