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कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए | शाही शायरी
koi hangama sar-e-bazm uThaya jae

ग़ज़ल

कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए

ज़ेहरा निगाह

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कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
कुछ किया जाए चराग़ों को बुझाया जाए

भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
वो सितमगर जो न भूले से भुलाया जाए

जिस के बाइस हैं ये चेहरे की लकीरें मग़्मूम
ग़ैर-मुमकिन है कि मंज़र वो दिखाया जाए

शाम ख़ामोश है और चाँद निकल आया है
क्यूँ न इक नक़्श ही पानी पे बनाया जाए

ज़ख़्म हँसते हैं तो ये फ़स्ल-ए-बहार आती है
हाँ इसी बात पे फिर ज़ख़्म लगाया जाए