कोई हैरान है याँ कोई दिल-गीर 
कहे तू है ये आलम बज़्म-ए-तस्वीर 
जले तक का मैं अपने क़द्र-दाँ हूँ 
ये चुटकी राख है इक-तुर्फ़ा इक्सीर 
निगाह-ए-इज्ज़ कुछ कुछ कारगर थी 
सो अब जाती रही उस की भी तासीर 
वो दिन क्या बा-हलावत थे कि अहबाब 
मुआफ़िक़ थे बहम जूँ शक्कर-ओ-शीर 
करूँ क्यूँकर न मैं 'रासिख़' मबाहात 
कि हैं उस्ताद मेरे हज़रत-ए-'मीर'
        ग़ज़ल
कोई हैरान है याँ कोई दिल-गीर
रासिख़ अज़ीमाबादी

