कोई दीवार न दर जानते हैं
हम इसी दश्त को घर जानते हैं
जान कर चुप हैं वगरना हम भी
बात करने का हुनर जानते हैं
ये मुहिम हदिया-ए-सर माँगती है
इस में है जाँ का ख़तर जानते हैं
लद गई शाख़-ए-लहू फूलों से
आएँगे अब के समर जानते हैं
जान जानी है तो जाएगी ज़रूर
हम दुआओं का असर जानते हैं
कौन है ताबा-ए-मोहमल किस का
किस का है किस पे असर जानते हैं
लोग उसे मस्लहतन कुछ न कहें
उस की औक़ात मगर जानते हैं
रात किस किस के उड़े हैं पुर्ज़े
शहर में क्या है ख़बर जानते हैं
रात काटे नहीं कटती है मगर
रात है ता-ब-सहर जानते हैं
हम ने भी देखी है दुनिया 'मोहसिन'
है किधर किस की नज़र जानते हैं
ग़ज़ल
कोई दीवार न दर जानते हैं
मोहसिन ज़ैदी