कोफ़्त से जान लब पे आई है 
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है 
लिखते रुक़ा लिखे गए दफ़्तर 
शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है 
आरज़ू उस बुलंद ओ बाला की 
क्या बला मेरे सर पे लाई है 
दीदनी है शिकस्तगी दिल की 
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है 
है तसन्नो कि लाल हैं वे लब 
यानी इक बात सी बनाई है 
दिल से नज़दीक और इतना दूर 
किस से उस को कुछ आश्नाई है 
बे-सुतूँ क्या है कोहकन कैसा 
इश्क़ की ज़ोर आज़माई है 
जिस मरज़ में कि जान जाती है 
दिलबरों ही की वो जुदाई है 
याँ हुए ख़ाक से बराबर हम 
वाँ वही नाज़ ओ ख़ुद-नुमाई है 
ऐसा मौता है ज़िंदा-ए-जावेद 
रफ़्ता-ए-यार था जब आई है 
मर्ग-ए-मजनूँ से अक़्ल गुम है 'मीर' 
क्या दिवाने ने मौत पाई है
        ग़ज़ल
कोफ़्त से जान लब पे आई है
मीर तक़ी मीर

