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कितनी रीतों में दिल उलझा रह गया | शाही शायरी
kitni riton mein dil uljha rah gaya

ग़ज़ल

कितनी रीतों में दिल उलझा रह गया

महशर बदायुनी

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कितनी रीतों में दिल उलझा रह गया
बढ़ गए हम और ज़माना रह गया

ख़त्म कितना कार-ए-दुनिया कर चले
और कितना कार-ए-दुनिया रह गया

जल बुझे घर और फ़सील-ए-शहर पर
रौशनी का शहर लिक्खा रह गया

मैं अकेला था सदा सुन कर तुम आए
दोस्तो मैं फिर अकेला रह गया

चेहरा-पोश ओझल हुए भड़का के आग
आने वाला घर को आता रह गया

हौसला रक्खो सफ़र का हम-रहो
मत ये सोचो क्या लुटा क्या रह गया

मिल गए अरमान मिट्टी में तमाम
कूज़ा-गर कूज़े बनाता रह गया