कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है
ज़िंदगी मौत को तरसती है
ये नशेब-ओ-फ़राज़ हस्ती है
हर बुलंदी को एक पस्ती है
देख कर क्या करोगे दिल की तरफ़
एक उजड़ी हुई सी बस्ती है
मौत आ कर जिसे उठाएगी
ज़िंदगी वो हिजाब-ए-हस्ती है
जान दे कर मिले जो उस की रज़ा
फिर भी महँगी नहीं है सस्ती है
रुख़ घटा का है सू-ए-मय-ख़ाना
देखिए अब कहाँ बरसती है
उस के नग़्मों से मस्त है दुनिया
कितना पुर-कैफ़ साज़-ए-हस्ती है
है ये सौदा यक़ीन का 'शंकर'
बुत-परस्ती भी हक़-परस्ती है

ग़ज़ल
कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है
शंकर लाल शंकर