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कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है | शाही शायरी
kitna dilkash fareb-e-hasti hai

ग़ज़ल

कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है

शंकर लाल शंकर

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कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है
ज़िंदगी मौत को तरसती है

ये नशेब-ओ-फ़राज़ हस्ती है
हर बुलंदी को एक पस्ती है

देख कर क्या करोगे दिल की तरफ़
एक उजड़ी हुई सी बस्ती है

मौत आ कर जिसे उठाएगी
ज़िंदगी वो हिजाब-ए-हस्ती है

जान दे कर मिले जो उस की रज़ा
फिर भी महँगी नहीं है सस्ती है

रुख़ घटा का है सू-ए-मय-ख़ाना
देखिए अब कहाँ बरसती है

उस के नग़्मों से मस्त है दुनिया
कितना पुर-कैफ़ साज़-ए-हस्ती है

है ये सौदा यक़ीन का 'शंकर'
बुत-परस्ती भी हक़-परस्ती है