EN اردو
किताब-ए-दिल के वरक़ जो उलट के देखता है | शाही शायरी
kitab-e-dil ke waraq jo ulaT ke dekhta hai

ग़ज़ल

किताब-ए-दिल के वरक़ जो उलट के देखता है

शाहिद जमाल

;

किताब-ए-दिल के वरक़ जो उलट के देखता है
वो काएनात को औरों को हट के देखता है

अगर नहीं है बिछड़ने का रंज कुछ भी उसे
वो बार बार मुझे क्यूँ पलट के देखता है

नदी बढ़ी हो कि सूखी हर एक सूरत में
किनारा अपने ही पानी से हट के देखता है

किसी को तीरगी पागल न कर सके जब तक
कहाँ चराग़ की लौ से पलट के देखता है

न हो सकेंगे कभी उस के ज़ेहन-ओ-दिल रौशन
वरक़ वरक़ जो किताबों को रट के देखता है

उसी पे खुलती हैं दुनिया की वुसअ'तें 'शाहिद'
जो अपनी ज़ात में हर पल सिमट के देखता है