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किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं | शाही शायरी
kisi se bas ki umid-e-kushud-e-kar nahin

ग़ज़ल

किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं

नज़्म तबा-तबाई

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किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं
मुझे अजल के भी आने का ए'तिबार नहीं

जवाब नामे का क़ासिद मज़ार पर लाया
कि जानता था उसे ताब-ए-इंतिज़ार नहीं

ये कह के उठ गई बालीं से मेरी शम-ए-सहर
तमाम हो गई शब और तुझे क़रार नहीं

जो तू हो पास तो हूर-ओ-क़ुसूर सब कुछ हो
जो तू नहीं तो नहीं बल्कि ज़ीनहार नहीं

ख़िज़ाँ के आने से पहले ही था मुझे मा'लूम
कि रंग-ओ-बू-ए-चमन का कुछ ए'तिबार नहीं

ग़ज़ल कही है कि मोती पिरोए हैं ऐ 'नज़्म'
वो कौन शे'र है जो दुर्र-ए-शाहवार नहीं