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किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं | शाही शायरी
kisi ko humse hain chand shikwe kisi ko behad shikayaten hain

ग़ज़ल

किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं

ऐतबार साजिद

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किसी को हम से हैं चंद शिकवे किसी को बेहद शिकायतें हैं
हमारे हिस्से में सिर्फ़ अपनी सफ़ाइयाँ हैं वज़ाहतें हैं

क़दम क़दम पर बदल रहे हैं मुसाफ़िरों की तलब के रस्ते
हवाओं जैसी मोहब्बतें हैं सदाओं जैसी रिफाक़तें हैं

किसी का मक़रूज़ मैं नहीं पर मिरे गरेबाँ पे हाथ सब के
कोई मिरी चाहतों का दुश्मन किसी को दरकार चाहतें हैं

तिरी जुदाई के कितने सूरज उफ़ुक़ पे डूबे मगर अभी तक
ख़लिश है सीने में पहले दिन सी लहू मैं वैसी ही वहशतें हैं

मिरी मोहब्बत के राज़-दाँ ने ये कह के लौटा दिया मिरा ख़त
कि भीगी भीगी सी आँसुओं में तमाम गुंजलक इबारतें हैं

मैं दूसरों की ख़ुशी की ख़ातिर ग़ुबार बन कर बिखर गया हूँ
मगर किसी ने ये हक़ न माना कि मेरी भी कुछ ज़रूरतें हैं