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किसी की चाह में ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है | शाही शायरी
kisi ki chah mein gham kya hai aur KHushi kya hai

ग़ज़ल

किसी की चाह में ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है

असग़र वेलोरी

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किसी की चाह में ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है
तुझे ख़बर नहीं मफ़्हूम-ए-आशिक़ी क्या है

तपिश में धूप के होती है क़द्र साए की
न हो जो मौत का ख़तरा तो ज़िंदगी क्या है

नहीं है फ़र्क़ अँधेरे में और उजाले में
नज़र न आए जहाँ तो वो रौशनी क्या है

हैं यूँ तो सैकड़ों मख़्लूक़ बज़्म-ए-हस्ती में
नहीं है दिल में मोहब्बत तो आदमी क्या है

रहे जो दिल से लिपट कर वो ग़म ही बेहतर है
जो चंद लम्हों की मेहमाँ है वो ख़ुशी क्या है

है आदमी तो उठाना है बार हस्ती का
है आस जीने की होंटों पे कपकपी क्या है

तिरे लिए तो झुकाना भी सर इबादत है
अगर झुका न सके दिल तो बंदगी क्या है

तुम्हारे जल्वा-ए-अक़दस का एक परतव है
ये नज्म और ये ज़ोहरा ये मुश्तरी क्या है

वो दिल-लगी है अगर गुदगुदी सी आ जाए
जला दे दिल को जो 'असग़र' वो दिल-लगी क्या है