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किसी के फ़ैज़-ए-क़ुर्ब से हयात अब सँवर गई | शाही शायरी
kisi ke faiz-e-qurb se hayat ab sanwar gai

ग़ज़ल

किसी के फ़ैज़-ए-क़ुर्ब से हयात अब सँवर गई

उनवान चिश्ती

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किसी के फ़ैज़-ए-क़ुर्ब से हयात अब सँवर गई
नफ़स नफ़स महक उठा नज़र नज़र निखर गई

निगाह-ए-नाज़ जब उठी अजीब काम कर गई
जो रंग-ए-रुख़ उड़ा दिया तो दिल में रंग भर गई

मिरी समझ में आ गया हर एक राज़-ए-ज़िंदगी
जो दिल पे चोट पड़ गई तो दूर तक नज़र गई

अब आस टूट कर मुझे सुकूँ नसीब हो गया
जो शाम-ए-इंतिज़ार थी वो शाम तो गुज़र गई

कली दिल-ए-तबाह की खिली न 'चिश्ती'-ए-हज़ीं
ख़िज़ाँ भी आ के जा चुकी बहार भी गुज़र गई