किसी गिर्दाब की फेंकी पड़ी है
लब-ए-साहिल जो इक कश्ती पड़ी है
हक़ीक़त में वही सीधी पड़ी है
मुझे इक चाल जो उल्टी पड़ी है
सफ़र उलझा दिए हैं उस ने सारे
मिरे पैरों में जो तेज़ी पड़ी है
वो हंगामा गुज़र जाता उधर से
मगर रस्ते में ख़ामोशी पड़ी है
मिरे कानों की ज़द पर हैं मनाज़िर
मिरी आँखों में सरगोशी पड़ी है
हुआ है क़त्ल बेदारी का जब से
ये बस्ती रात दिन सोई पड़ी है
ये मिस्रा मैं अधूरा छोड़ता हूँ
मिरे बस्ते में इक तख़्ती पड़ी है
पतंग कटने का बाइस और है कुछ
अगरचे डोर भी उलझी पड़ी है
ज़रा कोयल का पिंजरा खुल गया था
अभी तक ख़ौफ़ से सहमी पड़ी है
मुकम्मल एक दुनिया और भी है
जो इक दुनिया की अन-देखी पड़ी है
बड़ी बंजर थी ये खेती 'लियाक़त'
मगर कुछ रोज़ से सींची पड़ी है
ग़ज़ल
किसी गिर्दाब की फेंकी पड़ी है
लियाक़त जाफ़री