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किसी बंजर तख़य्युल पर किसी बे-आब रिश्ते में | शाही शायरी
kisi banjar taKHayyul par kisi be-ab rishte mein

ग़ज़ल

किसी बंजर तख़य्युल पर किसी बे-आब रिश्ते में

शहनवाज़ ज़ैदी

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किसी बंजर तख़य्युल पर किसी बे-आब रिश्ते में
ज़रा ठहरे तो पत्थर बन गए अहबाब रस्ते में

सराबों की गली है या तिरे गाँव का कोना है
लगा है ख़ाक पर शीशे का इक तालाब रस्ते में

अभी कुछ देर पहले पाँव के नीचे न थे बादल
अभी फैला गई हैं तेरी आँखें ख़्वाब रस्ते में

मिरी तय्यारियाँ मेरे सफ़र में हो गईं हाइल
कभी ता'वीज़ बाज़ू पर कभी मेहराब रस्ते में

समुंदर अपने मरकज़ में खिंचा है मेरी आँखों का
सो अब मुमकिन नहीं है रोकना सैलाब रस्ते में

मैं काफ़ी देर पहले जिस को घर में छोड़ आया था
खड़ा है मुँह फुलाए अब वही महताब रस्ते में

सफ़र आसाँ नहीं होता कमर पे लाद कर दुनिया
चले तो रफ़्ता रफ़्ता रह गया अस्बाब रस्ते में

हम ऐसे राह-रौ थे कोई भी मंज़िल न हो जिन की
सफ़ीने आरज़ू के हो गए ग़र्क़ाब रस्ते में