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किसे अपना बनाएँ कोई इस क़ाबिल नहीं मिलता | शाही शायरी
kise apna banaen koi is qabil nahin milta

ग़ज़ल

किसे अपना बनाएँ कोई इस क़ाबिल नहीं मिलता

मख़मूर देहलवी

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किसे अपना बनाएँ कोई इस क़ाबिल नहीं मिलता
यहाँ पत्थर बहुत मिलते हैं लेकिन दिल नहीं मिलता

मोहब्बत का सिला ईसार का हासिल नहीं मिलता
वो नज़रें बार-हा मिलती हैं लेकिन दिल नहीं मिलता

तुम्हारा रूठना तम्हीद थी अफ़्साना-ए-ग़म की
ज़माना हो गया हम से मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता

जहाँ तक देखता हूँ मैं जहाँ तक मैं ने समझा है
कोई तेरे सिवा तारीफ़ के क़ाबिल नहीं मिलता

हरम की मंज़िलें हों या सनम-ख़ाने की राहें हों
ख़ुदा मिलता नहीं जब तक मक़ाम-ए-दिल नहीं मिलता

मुसाफ़िर अपनी मंज़िल पर पहुँच कर चैन पाते हैं
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता

हम अपना ग़म लिए बैठे हैं उस बज़्म-ए-तरब में भी
किसी नग़्मे से अब 'मख़मूर' साज़-ए-दिल नहीं मिलता