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किस तरह वाक़िफ़ हों हाल-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से | शाही शायरी
kis tarah waqif hon haal-e-ashiq-e-jaan-baz se

ग़ज़ल

किस तरह वाक़िफ़ हों हाल-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से

ग़ुलाम भीक नैरंग

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किस तरह वाक़िफ़ हों हाल-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से
उन को फ़ुर्सत ही नहीं है कारोबार-ए-नाज़ से

मेरे दर्द-ए-दिल से गोया आश्ना हैं चोब-ओ-तार
अपने नाले सुन रहा हूँ पर्दा-हा-ए-साज़ से

ज़र्रा ज़र्रा है यहाँ इक कतबा-ए-सिर्र-ए-अलस्त
आप ही वाक़िफ़ नहीं हैं रस्म-ए-ख़त्त-ए-राज़ से

दिल गए ईमाँ गए अक़्लें गईं जानें गईं
तुम ने क्या क्या कर दिखाया इक निगाह-ए-नाज़ से

आह! कल तक वो नवाज़िश! आज इतनी बे-रुख़ी
कुछ तो निस्बत चाहिए अंजाम को आग़ाज़ से