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किस को हम-सफ़र समझें जो भी साथ चलते हैं | शाही शायरी
kis ko ham-safar samjhen jo bhi sath chalte hain

ग़ज़ल

किस को हम-सफ़र समझें जो भी साथ चलते हैं

इंद्र मोहन मेहता कैफ़

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किस को हम-सफ़र समझें जो भी साथ चलते हैं
आश्ना से लगते हैं अजनबी निकलते हैं

ऐ मिरी शरीक-ए-ग़म काश तू समझ सकती
कितने अन-बहे आँसू क़हक़हों में ढलते हैं

रात की ख़मोशी में जब कोई नहीं होता
दिल से बीती यादों के क़ाफ़िले निकलते हैं

तह-ब-तह अँधेरों तक रौशनी तो फैलेगी
एक रात की ज़िद में सौ चराग़ चलते हैं

मंज़िलों के धोके में साथियो न रुक जाना
मंज़िलों से आगे भी रास्ते निकलते हैं