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किस ख़्वाब का असर है जो अब तक नज़र में है | शाही शायरी
kis KHwab ka asar hai jo ab tak nazar mein hai

ग़ज़ल

किस ख़्वाब का असर है जो अब तक नज़र में है

मुज़फ़्फ़र मुम्ताज़

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किस ख़्वाब का असर है जो अब तक नज़र में है
मंज़िल की एक शबीह ग़ुबार-ए-सफ़र में है

समझो कि एक परतव-ए-मंज़र नहीं तमाम
है तीरगी वो राज़ जो ताब-ए-गोहर में है

दरिया की वुसअ'तों से जो ख़ाइफ़ रहे वो लोग
समझे नहीं कि एक किनारा भँवर में है

हम मंज़िल-ए-यक़ीं पे न ठहरे ये जान कर
ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के साथ ख़ुदा भी सफ़र में है

रक़्साँ मिरी तलब में है रक़्क़ास-ए-काएनात
मेरी तलाश है जो दिल-ए-रह-गुज़र में है

हैरत वुफ़ूर-ए-शौक़ में तकमील की तरफ़
इक अक्स आइनों से गुरेज़ाँ सफ़र में है