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किस एहतियात से सपने सजाने पड़ते हैं | शाही शायरी
kis ehtiyat se sapne sajaane paDte hain

ग़ज़ल

किस एहतियात से सपने सजाने पड़ते हैं

मुईन शादाब

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किस एहतियात से सपने सजाने पड़ते हैं
ये संग-रेज़े पलक से उठाने पड़ते हैं

बहुत से दर्द तो हम बाँट भी नहीं सकते
बहुत से बोझ अकेले उठाने पड़ते हैं

ये बात उस से पता कर जो इश्क़ जानता हो
पलों की राह में कितने ज़माने पड़ते हैं

हर एक पेड़ का साया नहीं मिला करता
बिला ग़रज़ भी तो पौदे लगाने पड़ते हैं

किसी को दिल से भुलाने में देर लगती है
ये कपड़े कमरे के अंदर सुखाने पड़ते हैं

कहाँ से लाओगे तुम इस क़दर जबीन-ए-नियाज़
क़दम क़दम पे यहाँ आस्ताने पड़ते हैं