EN اردو
किस दिन ब-रंग-ए-ज़ख़्म नया गुल खिला नहीं | शाही शायरी
kis din ba-rang-e-zaKHm naya gul khila nahin

ग़ज़ल

किस दिन ब-रंग-ए-ज़ख़्म नया गुल खिला नहीं

जलील ’आली’

;

किस दिन ब-रंग-ए-ज़ख़्म नया गुल खिला नहीं
किस शब ब-फ़ैज़-ए-अश्क चराग़ाँ हुआ नहीं

इक सहम है कि हर कहीं रहता है साथ साथ
इक वहम है कि आज भी दिल से गया नहीं

ऐ दोस्त राह-ए-ज़ीस्त में चल एहतियात से
गिरते हुए को कोई यहाँ थामता नहीं

गो ज़ेहन से शबीह तिरी महव हो गई
लेकिन तिरे ख़याल का सूरज बुझा नहीं

मन का तमाम ज़ौक़-ए-सफ़र घट के रह गया
तन के समुंदरों में कहीं रास्ता नहीं

'आ'ली' वरूद-ए-शेर में वक़्फ़ा बजा मगर
अब के तो एक उम्र हुई कुछ कहा नहीं