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ख़्वाहिश में सुकूँ की वही शोरिश-तलबी है | शाही शायरी
KHwahish mein sukun ki wahi shorish-talbi hai

ग़ज़ल

ख़्वाहिश में सुकूँ की वही शोरिश-तलबी है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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ख़्वाहिश में सुकूँ की वही शोरिश-तलबी है
यानी मुझे ख़ुद मेरी तलब ढूँड रही है

दिल रखते हैं आईना-ए-दिल ढूँड रहे हैं
ये उस की तलब है कि वही ख़ुद-तलबी है

तस्वीर में आँखें हैं कि आँखों में है तस्वीर
ओझल हो निगाहों से तो बस दिल पे बनी है

दिन भर तो फिरे शहर में हम ख़ाक उड़ाते
अब रात हुई चाँद सितारों से ठनी है

हैं उस की तरह सर्द ये बिजली के सुतूँ भी
रौशन हैं मगर आग कहाँ दिल में लगी है

फिर ज़ेहन की गलियों में सदा गूँजी है कोई
फिर सोच रहे हैं कहीं आवाज़ सुनी है

फिर रूह के काग़ज़ पे खिंची है कोई तस्वीर
है वहम कि ये शक्ल कहीं देखी हुई है

कतराए तो हम लाख रह-ए-वहशत-ए-दिल से
कानों में सलासिल की सदा गूँज रही है

'बाक़र' मुझे फ़ुर्सत नहीं शोरीदा-सरी की
काँधों पे मिरे सर है कि इक दर्द-सरी है