ख़्वाहिश-ए-जादा-ए-राहत से निकलता कैसे
दिल मिरा कू-ए-मलामत से निकलता कैसे
साया-ए-वहम-ओ-गुमाँ चार तरफ़ फैला है
मैं अभी कर्ब-ओ-अज़िय्यत से निकलता कैसे
मेरी रुस्वाई अगर साथ न देती मेरा
यूँ सर-ए-बज़्म मैं इज़्ज़त से निकलता कैसे
मेरी नज़रें जो न पड़तीं तो वहाँ पिछली शब
इक सितारा सा तिरी छत से निकलता कैसे
मैं कि बर्बाद हुआ दीद की ख़ातिर जिस की
वो मिरे दीदा-ए-हैरत से निकलता कैसे
उस के दम ही से तो क़ाएम है मिरा जाह-ओ-जलाल
वो मिरे दिल की हुकूमत से निकलता कैसे
जाग बैठा हूँ तो दिल डूबा नहीं है 'अख़्तर'
सोया रहता तो मुसीबत से निकलता कैसे
ग़ज़ल
ख़्वाहिश-ए-जादा-ए-राहत से निकलता कैसे
अख्तर शुमार