EN اردو
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए | शाही शायरी
KHwabon ki kirchiyan meri muTThi mein bhar na jae

ग़ज़ल

ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए

अतीक़ुल्लाह

;

ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
आइंदा लम्हा अब के भी यूँही गुज़र न जाए

रस्सी लटक रही है गले को न भेंच ले
ख़ंजर चमक रहा है बदन में उतर न जाए

मुँह फ़ाड़ती हैं घर की दराड़ें इधर उधर
इक क़हक़हा कि जैसे फ़ज़ा में बिखर न जाए

क्यूँ उस के साथ ही न रहा जाए चंद रोज़
जो आदमी कि रात में भी अपने घर न जाए

क्या जाने बात क्या है कि रुकता नहीं कोई
कब से पुकारता हूँ कि कोई उधर न जाए

कैसे फिर अपने आप को ज़िंदा कहूँगा मैं
इक और शख़्स मुझ में है शामिल वो मर न जाए

जिस को कि उर्फ़-ए-आम में कहते हैं ज़िंदगी
ये नश्शा अपने वक़्त से पहले उतर न जाए