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ख़्वाब आँखों की गली छोड़ के जाने निकले | शाही शायरी
KHwab aankhon ki gali chhoD ke jaane nikle

ग़ज़ल

ख़्वाब आँखों की गली छोड़ के जाने निकले

ग़यास मतीन

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ख़्वाब आँखों की गली छोड़ के जाने निकले
हम इधर नींद की दीवार गिराने निकले

धूल रस्ते का मुक़द्दर है तो रस्ता क्या है
बस यही बात ज़माने को बताने निकले

जब पहाड़ों से मिली दाद हुनर की अपने
दास्ताँ हम भी समुंदर को सुनाने निकले

रंग से रंग जुदा होने का मंज़र देखा
तीरगी और शफ़क़ सिर्फ़ बहाने निकले

जब समुंदर पे चले हम तो ये सहरा चुप थे
अब पहाड़ी पे खड़े हैं तो बुलाने निकले

आसमाँ जिस की ज़मीं है वो परिंदा हूँ मैं
जाने क्यूँ लोग यहाँ दाम बिछाने निकले

कोई चेहरा न दे आवाज़ किसी लौ से 'मतीन'
शाम होते ही चराग़ों को बुझाने निकले