ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
उन की सजों को देख मरें क्यूँ न लोलियाँ
होंटों में जम रही है तिरे आज क्यूँ धरी
भेजी थीं किस ने रात को पानों की ढोलियाँ
जिस दिन से अँखड़ियाँ तिरी उस को नज़र पड़ीं
बादाम ने ख़जिल हो फिर आँखें न खोलियाँ
तारे नहीं फ़लक पे तुम्हारे निसार को
लाया है मोतियों से ये भर भर के झोलियाँ
सुम्बुल को पेच-ओ-ताब अजब तरह की हुई
ज़ुल्फ़ें जब उन ने जा के गुलिस्ताँ में खोलियाँ
गुलशन में बहसने को तुम्हारे दहन के साथ
खोला था मुँह को कलियों ने पर कुछ न बोलियाँ
ताबाँ क़फ़स में आज हैं वे बुलबुलें ख़मोश
करती थीं कल जो बाग़ में गुल से किलोलियाँ
ग़ज़ल
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
ताबाँ अब्दुल हई