ख़ुशबू है और धीमा सा दुख फैला है
कौन गया है अब तक लान अकेला है
क्यूँ आहट पर चौकूँ मैं किस को देखूँ
बे-दस्तक ही आया जब वो आया है
खुली किताबें सामने रक्खे बैठी हूँ
धुँदले धुँदले लफ़्ज़ों में इक चेहरा है
रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
बंद आँखों में उस का चेहरा रहता है
आवाज़ों से ख़ाली किरनें फैली हैं
ख़ामोशी में चाँद भी तन्हा जलता है
जाने कौन से रस्ते पे खो जाए वो
शहर में भी आसेबों का डर रहता है
ग़ज़ल
ख़ुशबू है और धीमा सा दुख फैला है
फ़ातिमा हसन