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ख़ुशा वो बाग़ महकती हो जिस में बू तेरी | शाही शायरी
KHusha wo bagh mahakti ho jis mein bu teri

ग़ज़ल

ख़ुशा वो बाग़ महकती हो जिस में बू तेरी

हसरत शरवानी

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ख़ुशा वो बाग़ महकती हो जिस में बू तेरी
ख़ुशा वो दश्त कि हो जिस में जुस्तुजू तेरी

ख़मोश है मगर इक आलम-ए-तकल्लुम है
लबों पे ग़ुंचे के गोया है गुफ़्तुगू तेरी

जिगर भी चाक हुआ दिल भी पारा-पारा हुआ
लगी हुई है मगर दिल से आरज़ू तेरी

मुक़ाबिल रुख़-ए-ज़ेबा न होना ऐ गुल-ए-तर
कहीं न ख़ाक में मिल जाए आबरू तेरी

असीर-ए-सहन-ए-गुलिस्ताँ नहीं दिल-आराई
शमीम-ए-लुत्फ़ दिल-अफ़ज़ा है कू-ब-कू तेरी

तरीक़-ए-अहल-ए-नज़र में है मनअ' यकसूई
ज़ि-बस-कि जल्वा-फ़िरोज़ी है चार-सू तेरी

हनूज़ दश्त-ए-ख़ुतन नाफ़ा-ज़ार-ए-आलम है
कभी खुली थी उधर ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू तेरी

फ़रिश्ता-ए-अजल आए परी के क़ालिब में
ब-वक़्त-ए-मर्ग जो सूरत हो रू-ब-रू तेरी

उमीद-ए-लुत्फ़ पे 'हसरत' है बाग़-ए-रिज़वाँ में
सुना है जब से कि लुत्फ़-ओ-करम है ख़ू तेरी