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खुलता नहीं कि हम में ख़िज़ाँ-दीदा कौन है | शाही शायरी
khulta nahin ki hum mein KHizan-dida kaun hai

ग़ज़ल

खुलता नहीं कि हम में ख़िज़ाँ-दीदा कौन है

अज़्म बहज़ाद

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खुलता नहीं कि हम में ख़िज़ाँ-दीदा कौन है
आसूदगी के बाब में रंजीदा कौन है

आमादगी को वस्ल से मशरूत मत समझ
ये देख इस सवाल पे संजीदा कौन है

देखूँ जो आईना तो ग़ुनूदा दिखाई दूँ
मैं ख़्वाब में नहीं तो ये ख़्वाबीदा कौन है

अम्बोह-ए-अहल-ए-ज़ख़्म तो कब का गुज़र चुका
अब रहगुज़र पे ख़ाक में ग़ल्तीदा कौन है

ऐ कर्ब-ए-ना-रसाई कभी ये तो ग़ौर कर
मेरे सिवा यहाँ तिरा गिरवीदा कौन है

हर शख़्स दूसरे की मलामत का है शिकार
आख़िर यहाँ किसी का पसंदीदा कौन है

तो अज़्म-ए-तर्क-ए-इश्क़ पे क़ाएम तो है मगर
तुझ में ये चंद रोज़ से लर्ज़ीदा कौन है