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खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं | शाही शायरी
khule jo aankh kabhi didani ye manzar hain

ग़ज़ल

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं

शहरयार

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खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं
समुंदरों के किनारों पे रेत के घर हैं

न कोई खिड़की न दरवाज़ा वापसी के लिए
मकान-ए-ख़्वाब में जाने के सैकड़ों दर हैं

गुलाब टहनी से टूटा ज़मीन पर न गिरा
करिश्मे तेज़ हवा के समझ से बाहर हैं

कोई बड़ा है न छोटा सराब सब का है
सभी हैं प्यास के मारे सभी बराबर हैं

हुसैन-इब्न-ए-अली कर्बला को जाते हैं
मगर ये लोग अभी तक घरों के अंदर हैं