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ख़ुदी कम ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं | शाही शायरी
KHudi kam zindagi mein gham bahut hain

ग़ज़ल

ख़ुदी कम ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं

करामत बुख़ारी

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ख़ुदी कम ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं
यही है इम्तिहाँ तो हम बहुत हैं

हमारा दर्द चेहरे से अयाँ है
हमारे दर्द के महरम बहुत हैं

हुई हमवार किस से राह-ए-हस्ती
अभी तक इस में पेच ओ ख़म बहुत हैं

ज़रूरी तो नहीं इक फ़स्ल-ए-गुल हो
जुनूँ के और भी मौसम बहुत हैं

बहुत हैं रोने वाले गुलसिताँ पर
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम बहुत हैं

मिरी पलकों पे रौशन हैं जो आँसू
मुझे ऐ दीदा-ए-पुर-नम बहुत हैं

नहीं इक आलम-ए-शाम-ए-जुदाई
नज़र में और भी आलम बहुत हैं