ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है
और गहराई में उतरूँ तो धुआँ होता है
इतनी पेचीदगी निकली है यहाँ होने में
अब कोई चीज़ न होने का गुमाँ होता है
इक तसलसुल की रिवायत है हवा से मंसूब
ख़ाक पर उस का अमीं आब-ए-रवाँ होता है
सब सवालों के जवाब एक से हो सकते हैं
हो तो सकते हैं मगर ऐसा कहाँ होता है
साथ रह कर भी ये इक दूसरे से डरते हैं
एक बस्ती में अलग सब का मकाँ होता है
क्या अजब राज़ है होता है वो ख़ामोश 'मलाल'
जिस पे होने का कोई राज़ अयाँ होता है
ग़ज़ल
ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है
सग़ीर मलाल